Tuesday 6 August 2013

एक मुट्ठी रेत की कीमत तुम क्या जानो..

लोकतांत्रिक विवशता से जकड़े इस देश में एक मुट्ठी रेत की कीमत मात्र चंद रुपये नहीं होती। इस रेत के हर कण-कण में वह भगवान छिपा है, जो नेता, सरकार और मुख्यमंत्री बनाता है। यह रेत केवल जमीन से निकला पदार्थ नहीं है, इससे बनती है एक आलीशान इमारत, जिसमें नेता, माफिया, अफसर, मंत्री जैसे खंभों का सहारा होता है। यह एक मुट्ठी रेत मात्र अवैध खनन का प्रतीक नहीं है, यह निशानी है एक ऐसे कुटुंब की, जिसकी वसुधा में नोटों के पेड़ लगते हैं, जिसके अंदर वोटों के पहाड़ बनते हैं, अराजकता की खाने होती है, अत्याचार के पक्षी फड़फड़ाते हैं, अन्याय के फूल खिलते हैं, भ्रष्टाचार की नदियां बहती हैं, वगैरह।

एक मुट्ठी रेत पकड़ने पर भले ही वह उंगलियों के पोरों से सरक जाए, लेकिन जब उसे मशीनों व ट्रॉलियों से भरा जाता है, तो हाथ की मुट्ठियां नोटों की गड्डियों से भर जाती हैं। शायद लोगों को यह भान हो चुका है कि रेत को मुट्ठी से उठाने का प्रयास व्यर्थ है। यह मुट्ठी तो विरोधियों का मुंह दबाने के काम में लाना कहीं अधिक हितकर है। यह जन-शक्ति का प्रतीक है, भले ही वह जन-शक्ति गुंडे या माफिया ही क्यों न हो। यह सत्ताधारी दल की प्रतिष्ठा का सवाल होता है, भले ही सत्ता के पास किसी बात का कोई जवाब न हो। रेत का अवैध खनन मात्र रुपये बनाने की प्रक्रिया नहीं है।

यह प्रजातंत्र के वातावरण में आहूति किया जाने वाला राजसूर्य यज्ञ है, जिसमें नेता व माफिया गठबंधन करके सांप्रदायिकता की अग्नि की आड़ में ईमानदार अफसरों की आहूति देते हैं। इससे सत्ता पक्ष को सीधा फायदा और विरोधियों को राजनीतिक मुद्दा हासिल होता है। सतयुग में ऋषियों के हवन को राक्षसगण दूषित करते थे और उनकी गुहार पर देवता राक्षसों का वधकर यज्ञ पूर्ण कराते थे। अब कलयुग है, यज्ञ का औचित्य बदल गया है। राक्षस स्वयं यज्ञ कर लेते हैं और जब कोई देवता उस यज्ञ को रोकने की जरा भी हिम्मत दिखाते हैं, तो उनका अपने आप नाश हो जाने की व्यवस्था मौजूद है। शायद कलयुग की यही परिणति है कि ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता आदि जैसे भाव एक मुट्ठी रेत की कीमत के आगे कहीं नहीं ठहरते हैं।

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