Sunday 4 August 2013

महज वोट बैंक नहीं हैं हिन्दुस्तानी

ये हैरानी और बेचैनी पैदा करने वाले दिन हैं। जैसे-जैसे पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव पास आते जा रहे हैं और लोकसभा चुनावों की सुरसुराहट

बढ़ रही है, हमारे सियासतदां बेलगाम होते जा रहे हैं। उनकी उलटबांसियों से सोच-समझ पर भरोसा करनेवाले लोग चकित हैं।
सबसे बड़ा अफसोस तो इस बात का है कि आजादी से लेकर अब तक भारतीय मतदाता ने किस्म-किस्म के दर्जनों चुनाव देखे हैं। हर बार उम्मीद की गई कि इस बार जो मुददे उठाए जा रहे हैं, उनका निराकरण होगा। प्रत्येक चुनाव में कुछ नए चेहरे आगे आए, तो कुछ पुरानों की विदाई हुई, लेकिन हालात में बहुत परिवर्तन नहीं आए। नफरत, जाति, धर्म और क्षेत्र पहले भी चुनाव जिताऊ फॉर्मूले थे और आज भी हैं। क्या हम वाकई एक परिपक्व लोकतंत्र का हिस्सा हैं? पुराने उदाहरण से बात शुरू करना चाहूंगा। 1963 में उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद में उपचुनाव हुआ। उस चुनाव में ‘समाजवादी आंदोलन’ के पुरोधा राममनोहर लोहिया खड़े हुए थे। जवाहरलाल नेहरू उन दिनों देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और लोहिया को हराना उनकी प्राथमिकताओं में एक था। बहुत सोच-समझकर बी वी केसकर कांग्रेस की ओर से चुनाव में उतारे गए। नाम से ही जाहिर है कि केसकर मूलत: महाराष्ट्र के थे, हालांकि उनकी शिक्षा-दीक्षा काशी में हुई थी। सियासी हलकों में किस्सा मशहूर है कि राजस्थान के एक समाजवादी नेता ने इस लोकसभा सीट के किसानों को भड़काते हुए कहा था कि अरे किसानो, जाग जाओ। तुम्हें मालूम नहीं कि गंगा पर बांध बनाकर सरकार तुम्हारे पानी को वैसे ही शक्तिहीन बना रही है, जैसे मलाई निकला दूध होता है। ये बिजली निकला हुआ गंगा जल तुम्हारी फसलों को कमजोर कर रहा है। यह भी प्रचलित है कि एक अन्य नेता ने कहा था कि केसकर ब्राह्मण नहीं, बल्कि ‘केशकट’ हैं। केशकट यानी वह व्यक्ति, जो बाल काटने का काम करता है। पता नहीं, इन किस्सों में कितनी सच्चाई है, पर यह ऐतिहासिक सच है कि केसकर चुनाव हार गए। आप यदि इन दोनों उदाहरणों को गौर से देखें, तो तल्ख सच्चाइयां उभरती हुई नजर आएंगी। पहली यह कि उस समय भी चुनाव में जातिवाद का बोलबाला था। ऐसा नहीं होता, तो केसकर जैसे प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ को ‘केशकट’ कहने की नौबत नहीं आती। दूसरी, तब भी भोले-भाले किसानों और ग्रामीणों को कुतर्कों से बहलाया जाता था। गंगा जल की तुलना मलाई रहित दूध से करना इसका प्रमाण है। यह किस्सा अगर सच न हो, तब भी नहीं झुठलाया जा सकता कि तोड़े-मरोड़े गए तथ्य और मर्यादाएं हमारे राजनीतिज्ञों का अचूक हथियार रही हैं। पचास साल बीत गए, पर यह दुर्भाग्यजनक सिलसिला जारी है।
सियासी हलकों में खबर गर्म है कि नरेंद्र मोदी को शीघ्र ही भारतीय जनता पार्टी भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने जा रही है। मोदी तेज-तर्रार नेता हैं। उन्हें अपनी उपलब्धियों को बताना और जताना आता है। अहमदाबाद में बैठकर वह अपनी ख्याति को देश-विदेश तक फैलाने में कामयाब रहे।
प्रधानमंत्री का सपना पालने का सांविधानिक हक उन्हें हासिल है ही। अगर उनकी पार्टी चाहती है, तो इसमें किसी को क्या तकलीफ हो सकती है? उन पर आरोप है कि 2002 के गुजरात दंगों के दौरान वह ‘राजधर्म’ का पालन नहीं कर सके। इसीलिए बहुत से लोग उन्हें सांप्रदायिक कहते हैं, पर इससे उन्हें और उनकी पार्टी को कोई गुरेज नहीं है। हिंदू पद-पातशाही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सपना रहा है और यह सर्वविदित सत्य है कि भगवा पार्टी इसी संघ का सियासी मुखौटा है। बात यहीं तक रहती, तो कोई बात नहीं थी। मोदी की कथनी और करनी को लेकर पूरे देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की कोशिश हो रही है। अल्पसंख्यकों को तरह-तरह के डर दिखाए जा रहे हैं। हमारे कुछ सांसद तो इस जुगत को आजमाने में इतना आगे बढ़ गए कि उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा तक को चिट्ठी लिख डाली। इस पत्र के जरिये उनसे अपील की गई थी कि वह नरेंद्र मोदी को अमेरिका का वीजा न दें। संयोग से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह उन दिनों संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा पर थे। वह वहां बसे अनिवासी भारतीयों और अमेरिकियों के जरिये विश्व समुदाय को संदेश दे रहे थे कि हम सांप्रदायिक नहीं, बल्कि सेकुलर हैं। उसी दौरान इस चिट्ठी के सार्वजनिक होने से कई सवाल उठ खड़े हुए। मसलन, मोदी को अमेरिका आने की इजाजत दी जाए या नहीं, यह वहां की हुकूमत का फैसला है। हमारे ‘माननीय’ क्यों उनसे उनके घरेलू मसले पर अपील कर रहे हैं? भारतीय सांसदों से यह भी उम्मीद की जाती है कि वे लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं का मान रखेंगे। मोदी को पसंद किया जाए या नापसंद यह उनका फैसला है, पर इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि वह एक निर्वाचित सरकार के मुखिया हैं। उनके लिए इस तरह का अनुरोध करना क्या भारतीय लोकतंत्र में निहित भावनाओं का अपमान नहीं है? ऐसे में कुछ लोगों को यह आरोप लगाने से नहीं रोका जा सकता कि यह अनुरोध भी वोट बैंक की राजनीति का एक नमूना है। क्या आपको ताज्जुब नहीं होता कि हमारे नेता हम हिन्दुस्तानियों को हिन्दुस्तानी नहीं, बल्कि खांचों में बंटा हुआ ‘वोट बैंक’ मानते हैं? हम अपनी आजादी की 66वीं जयंती की ओर बढ़ रहे हैं, पर पता नहीं क्यों हमारे राजनेता इसके महत्व को समझने में नाकाम रहे हैं। वे आज भी ठोस सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रमों के जरिये देश को आगे बढ़ाकर नहीं, बल्कि मतदाताओं को बरगलाकर ही अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। यही वजह है कि हमारे यहां आबादी के साथ मुफलिसी और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने मतदाताओं को जहालत के अंधेरे में झोंककर ही हमारे हुक्मरानों के सत्ता सदन रात के अंधेरे में भी उजाले से नहाए रहते हैं? ऐसा नहीं होता, तो पोलियो का टीका कभी राजनीति का मुद्दा नहीं बनता। भला कौन सी कौम अपने नौनिहालों को अपाहिज देखना पसंद करेगी? ऐसे सैकड़ों शर्मनाक उदाहरण हैं, जिनकी गिनती करने बैठूं, तो अखबार के पन्ने कम पड़ जाएं। यहीं एक सवाल यह भी उठता है कि ऐसे में आम आदमी क्या करे? हमें करना यह चाहिए कि जब भी चुनाव नजदीक आएं, तो अपने चुने गए प्रतिनिधियों से पूछें कि आपने अपने पिछले कितने वायदे पूरे किए? नए चुनाव लड़नेवालों से भी जिरह की जाए कि आप पर भरोसा कैसे और क्यों किया जाए? हम अपने सांसदों और विधायकों को ई-मेल और फैक्स भेजकर भी पूछ सकते हैं कि आपके वायदों का क्या हुआ? यकीन जानिए, हालात इसी से बदलने शुरू हो जाएंगे। हमारे नेताओं को जनता के सवालों से सर्वाधिक भय लगता है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि हमारे सामाजिक ताने-बाने में अनेकता में एकता और लोकतंत्र की अंतर्धारा सदियों से बहती आई है। हमें गर्वपूर्वक इस पर डटे रहना चाहिए और इसकी मजबूती पर काम करना चाहिए। आने वाले चुनाव इस नेक काम के लिए हमें एक बार फिर अवसर प्रदान कर रहे हैं।

No comments:

Post a Comment