Sunday 4 August 2013

क्यों होता है लोगों को एतराज: अनुराग कश्यप

Image Loading
Anurag Kasyap
फिल्म ‘सत्या’ से बतौर लेखक चर्चा में आए अनुराग कश्यप ने बाद में कई और फिल्में भी लिखीं। निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म थी ‘पांच’, जो आज तक रिलीज नहीं हो सकी। फिर उन्होंने ‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘देव डी’, ‘नो स्मोकिंग’ सहित कुछ फिल्में निर्देशित कीं। ‘ब्लैक फ् राइडे’ आलोचकों द्वारा काफी सराही गई, लेकिन बतौर निर्देशक वे सुर्खियों में आए ‘देव डी’ से। उसके बाद ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिली सफलता से अनुराग एक ब्रांड बन गए हैं।
यह अलग बात है कि वह ऐसा नहीं मानते। 65वें कान्स फिल्म फेस्टिवल में भी ‘डायरेक्टर्स फोर्थ नाइट’ खंड में उनकी फिल्में प्रदर्शित हो चुकी हैं। आइए जानें ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ बनाने की कथा उन्हीं की जुबानी मैं कुछ भी साबित करने के लिए सिनेमा नहीं बनाता। मेरा मानना है कि सिनेमा से समाज नहीं सुधरता। पर मैं अपने आसपास जो कुछ महसूस करता हूं, उसे लोगों तक पहुंचाने अथवा कोई रोचक कहानी सुनाने के लिए सिनेमा बनाता हूं। फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की योजना बड़े अजीबोगरीब तरीके से बनी थी। मेरी पत्नी और अभिनेत्री कल्कि के एक नाटक का मुंबई के पृथ्वी थिएटर में मंचन हो रहा था। मैं वहीं बैठा हुआ था। तभी वासेपुर का रहने वाला एक युवक सैयद जीशान कादरी मेरे पास आया। उसने मुझे वासेपुर की एक कहानी सुनाई, जिसे सुन कर मैं हैरान रह गया। मेरी समझ से परे की बात थी कि 21वीं सदी के भारत में भी कोई ऐसा गांव है, जहां आज भी लोग सिर्फ मरने या मारने की बात करते हैं। हर इंसान सिर्फ बदला लेने की भावना से ही जीता है। इसलिए मुझे लगा कि इस पर कुछ काम किया जाना चाहिए। फिर हमने पूरे दो साल तक रिसर्च की। पहले हमने अपनी टीम भेजी, जो सैयद जीशान कादरी की मदद से उस कस्बे में रह कर आई। फिर मैं भी वहां गया और कुछ दिन रहा, पर हम लोगों ने वहां यह नहीं बताया कि हम लोग बॉलीवुड से जुडे़ हुए हैं। फिर जीशान कादरी ने 180 पेज का एक उपन्यास लिख डाला। उसी उपन्यास को आधार बना कर हमने नए सिरे से पटकथा लिखी। स्क्रिप्ट तैयार होने के बाद हमने चार माह लगातार शूटिंग कर पांच घंटे बीस मिनट की फिल्म तैयार की थी। सच कहूं तो यह दुनिया मैं सैयद जीशान कादरी की वजह से देख पाया,जो इस फिल्म के सह-लेखक होने के साथ-साथ मुख्य भूमिका में भी नजर आए। गालियों व हिंसा की भरमार होने की वजह से ही फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को सेंसर बोर्ड ने एडल्ट फिल्म का सर्टिफिकेट दिया था। माना कि इसमें काफी गालियां हैं, पर इसे लेकर लोगों का हाय-तौबा मचाना गलत था। बाद में उनकी समझ में आया होगा कि वह जायज है, क्योंकि हमने गालियां जान-बूझ कर नहीं रखी थीं, बल्कि फिल्म जिस क्षेत्र व जिस माहौल की है, वहां के अनुरूप ही सारे संवाद रखे गए थे। कुछ लोगों को अभी भी फिल्म की गालियों पर एतराज है, मगर वह यह नहीं समझ पा रहे कि जो उन्हें गालियां लग रही हैं, वह उस क्षेत्र की आम बोलचाल की भाषा है। दरअसल क्षेत्रीयता के हिसाब से कुछ बातों के अर्थ बदल जाते हैं। मसलन, फिल्म में एक संवाद है- ‘कह के तेरी लूंगा।’ इस संवाद का मतलब है कि सामने वाले ने जो कहा है, वह करके दिखाएगा। वह पीठ में छुरा नहीं भोंकेगा, बल्कि सामने से ही हमला करेगा। जब रिसर्च के दौरान मैं वासेपुर गया तो मैंने पाया कि वासेपुर में रहने वाले लोगों की खासियत यह है कि वह दिन भर सिनेमा देखते रहते हैं और सभी के पास गन होती है। उस गांव का हर इंसान अपने आपको तोप समझता है। उसे लगता है कि कोई उसके सामने टिक नहीं सकता। इस फिल्म की शूटिंग के लिए हमें काफी मेहनत करनी पड़ी। फिल्म में वास्तविक माहौल नजर आए, इसलिए हमें छिप-छिप कर शूटिंग करनी पड़ी। इस फिल्म को बनाने के लिए हमारे पास ज्यादा बजट नहीं था। हमारी फिल्म में कोयला व खनन माफिया द्वारा पहाड़ी उड़ाने का सीन है। यदि हम इस सीन को वास्तव में फिल्माने की कोशिश करते तो पांच करोड़ का खर्च आता। लेकिन हमने एक माफिया द्वारा उड़ाई जा रही पहाड़ी को छिप कर फिल्मा लिया। इतना ही नहीं, सत्य घटनाक्रम व पात्रों वाली फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ बना कर मैं काफी जल चुका था। पात्रों के नाम वही रखने की वजह से मुझे तीन साल तक फिल्म के प्रदर्शन का इंतजार करना पड़ा था। इस बार मैंने कुछ पात्रों के न सिर्फ नाम बदले, बल्कि उनके आपस में रिश्ते भी बदल दिए। मुझे अपनी फिल्म के मुख्य खलनायक के लिए कलाकार की तलाश थी। जब हमें तिग्मांशु धुलिया मिले, तब हमारी यह तलाश खत्म हुई। हमारी फिल्म में मुख्य खलनायक के रूप में तिग्मांशु 40 साल से 90 साल तक की उम्र में नजर आए। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अमरीश पुरी के जाने के बाद बॉलीवुड में जो जगह खाली हुई है, उसे सिर्फ तिग्मांशु भर सकते हैं, कोई और नहीं। फिल्म की कहानी के अनुरूप उस काल का माहौल पैदा करने में संगीतकार स्नेहा खानविलकर ने भी हमारे साथ काफी मेहनत की थी। स्नेहा ने इस पर पूरे ढाई साल तक काम किया। उन्होंने वहां के कुछ स्थानीय व लोक गीत-संगीत को रिकॉर्ड किया और फिल्म में उसे पिरोया। साथ ही वहां के लोगों से गवाया भी। फिल्म को प्रामाणिक बनाने के लिए जरूरी था कि हम वासेपुर में ही उसे फिल्माते, मगर अब 1960 का वासेपुर वैसा नहीं है, इसलिए हमें कुछ दूसरी जगह भी शूटिंग करने का निणर्य लेना पड़ा। काफी सोच-विचार कर हमने सोनभद्र, वाराणसी, ओबरा, धनबाद, पटना और वासेपुर में शूटिंग की। फिल्म में हमने मनोज बाजपेयी का जो घर दिखाया है, वह वाराणसी से थोड़ी दूर ओबरा में स्थित वह घर है, जिसमें मेरा छोटा भाई अभिनव कश्यप पैदा हुआ था। हम लोग काफी समय वहां रहे हैं। हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या थी फिल्म के पात्रों को वास्तविक रूप देना। काफी सोच-विचार के बाद हमने इसके लिए सिलिकॉन प्रोस्थेटिक मेकअप का सहारा लिया, जिसमें अहमदाबाद के एनआईडी इंस्टीट्यूट से प्रशिक्षित और अहमदाबाद की ही संस्था ‘द डर्टी हैंड’ से जुड़े राजीव और ममता गौतम ने हमारी मदद की। बॉलीवुड में मुझे 20 साल हो गए। इस दौरान काफी संघर्ष किया और  सीखा कि यदि आपको अपने आप पर, अपने विचारों पर, अपने आइडियाज पर यकीन है तो उन पर अडिग रहिए। काम करते रहिए। दूसरों के कहने पर उसमें बदलाव मत कीजिए। मैंने दो फिल्में ऐसी बनाई थीं, जो अब तक रिलीज नहीं हुई हैं। दो फिल्में ऐसी थीं, जिन्हें मुझे बीच में ही हमेशा के लिए बंद कर देना पड़ा। इस बीच मैंने तीन फिल्में निर्देशित करने से मना कर दिया था, पर वो बाद में दूसरे निर्देशकों ने की और सुपर-डुपर हिट रहीं। मैंने उन फिल्मों को करने से इसलिए मना किया था, क्योंकि उन विषयों पर मेरा यकीन नहीं था, पर लोगों ने उन्हें पसंद किया। वहीं हमारी कई फिल्मों को भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार व सम्मान मिले। यह सच है कि मैं नवाजुद्दीन की काफी तारीफ करता हूं, क्योंकि वह बेहतरीन कलाकार है। वह बहुत रीयल है। मेरी भी समझ में आज तक नहीं आया कि हिंदी फिल्मों में ही हीरो सुंदर, गोरा-चिट्टा क्यों होता है? हिंदी फिल्मों का हीरो हमेशा ‘लार्जर दैन लाइफ’ ही क्यों होता है? यह सब सिर्फ हिंदी फिल्मों के साथ होता है, जबकि नवाजुद्दीन में मुझे जमीन का आदमी दिखा, जिसकी अपनी कोई पर्सनैलिटी नहीं है। वह स्ट्रॉन्ग स्क्रीन पर्सन है, जिसे किसी भी चरित्र में ढाला जा सकता है। नवाजुद्दीन की इमेज कभी भी आड़े नहीं आ
सकती। सिनेमा बदला, दर्शक बदल गए। अब हर किसी को अच्छी कहानी चाहिए, लेकिन मुसीबत यह है कि हर फिल्म निर्माता को अच्छी कहानी की समझ नहीं है। उन्हें तो सिर्फ हिट होने पर ही यकीन है। पर अब मेन स्ट्रीम सिनेमा की नई परिभाषा तैयार हो रही है। सिनेमा में बदलाव की जो बयार शुरू हुई है, उसकी एक वजह यह भी है कि एक साथ कई संजीदा लेखक व फिल्मकार आ गए हैं। अनुराग को जानें करीब से प्रोफाइल
जन्म: 10 सितंबर 1972, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
पिता: सरकारी सेवा से रिटायर।
पत्नी- पहली पत्नी आरती बजाज (2003 से 2009 तक) और अब कल्कि कोचलीन।
बेटी: आलिया कश्यप।
बतौर लेखक पहला नाटक: ‘मैं’
बतौर निर्देशक पहली फिल्म: ‘पांच’, जो आज तक रिलीज नहीं हुई।
बतौर पटकथा लेखक पहली फिल्म: ‘सत्या’, जिसके लिए स्क्रीन अवॉर्ड मिला।
आने वाली फिल्में: ‘बॉम्बे वेलवेट’, ‘अग्ली’ और ‘डोगा’
मुंबई के एक एनजीओ- आंगन ट्रस्ट से जुडेम् हुए हैं। कहां है वासेपुर? बोले अनुराग
हमारी फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की कहानी 1941 से 2009 तक की है। यह उस वासेपुर की कहानी है, जो अब झारखंड के धनबाद जिले का कस्बा है। किसी समय यह पश्चिम बंगाल का हिस्सा हुआ करता था। तब वासेपुर एक गांव था, लेकिन धीरे-धीरे विकास के साथ वासेपुर और उसके आसपास के गांव एक कस्बा बन गए हैं। कुछ समय बाद यह इलाका बिहार राज्य में आ गया था और अब यह झारखंड में है।

No comments:

Post a Comment