Sunday 4 August 2013

फिल्म रिव्यू: बजाते रहो

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Bajatey reho
इस फिल्म के आने से पहले इसके कलाकार ही यह बात कह रहे थे कि इसे देखते हुए आपको ‘खोसला का घोसला’ याद आ सकती है। उनकी इस ईमानदारी की तारीफ होनी चाहिए, क्योंकि अपने मूड और स्वाद में यह फिल्म ‘खोसला का घोसला’ का ही एक एपिसो ड नजर आती है। ‘खोसला का घोसला’ की ही तरह इसमें भी दिल्ली की कहानी है। एक आम परिवार के साथ धोखा होने और फिर उस परिवार के उठ कर बदला लेने की कहानी है। और यह सब हो रहा है कॉमेडी के रैपर में लपेट कर।

सब्बरवाल (रवि किशन) के स्कूल, बैंक, डेयरी जैसे कई धंधे हैं, लेकिन सबमें कोई न कोई घपला है। अपने ही बैंक में घोटाला करके वह इल्जाम मैनेजर बावेजा पर लगा देता है। इस सदमे से मैनेजर की मौत हो जाती है। उसकी पत्नी (डॉली आहलूवालिया) और बेटा सुक्खी (तुषार कपूर) अपने दोस्तों बल्लू (रणवीर शौरी), मिंटू (विनय पाठक) और मनप्रीत (विशाखा सिंह) के साथ मिल कर सब्बरवाल का बैंड बजाने में जुट जाते हैं। अंत में ये लोग सब्बरवाल से अपना पैसा वापस ले पाने में कामयाब होते हैं।

कहानी में नयापन भले ही न हो, लेकिन इसमें चुटीलापन जरूर है। कैसे एक रईस और फ्रॉड इंसान को कुछ आम लोग अपनी चालाकी और हिम्मत से बार-बार चोट पहुंचाते हैं, इसे देख कर एक आम दर्शक को इसलिए मजा आएगा, क्योंकि घपलों-घोटालों का मारा वह दर्शक खुद को इससे रिलेट कर सकेगा। फिल्म हर पल यह उत्सुकता जगाती है कि आगे क्या होगा। लेकिन यहां थोड़ी-सी दिक्कत इसकी स्क्रिप्ट के साथ है, जिसमें तीखेपन की कमी साफ झलकती है। इस किस्म की कहानी में इतने सारे पंच भले ही न हों कि दर्शक हंसते-हंसते पेट पकड़ लें, लेकिन इतना मसाला तो होना ही चाहिए कि वे लगातार ठहाके लगा सकें और इस मोर्चे पर यह फिल्म हल्की पड़ती नजर आती है।

कहीं-कहीं इन लोगों की हरकतों में कुछ ज्यादा ही ‘फिल्मीपन’ झलकता है, लेकिन उसे अनदेखा किया जा सकता है। हां, थोड़ा और नींबू-मिर्ची छिड़का जाता तो यह फिल्म कहीं ज्यादा चटपटी और तीखी बन सकती थी। डॉली आहलूवालिया को ‘विकी डोनर’ जैसा बढ़िया रोल तो नहीं मिला, लेकिन हर सीन में उनका प्रभाव जबर्दस्त रहा है। तुषार कपूर अपनी सीमित रेंज के बावजूद जंचे हैं। विनय पाठक को भी हल्का ही रोल मिला। रणवीर शौरी जब-जब पर्दे पर आए, बाकियों पर भारी पड़े। रवि किशन का काम तो अच्छा रहा, लेकिन अपनी बोली से वह पंजाबी नहीं लगते। तुषार के छोटे भाई कबूतर के किरदार में दिखाई दिए हुसैन साद में भरपूर आत्मविश्वास नजर आता है।

बृजेंद्र काला ने एक बार फिर साबित किया कि वह कमाल के कलाकार हैं। विशाखा सिंह खूबसूरत लगीं। संगीत ज्यादा असरदार न होते हुए भी ‘मैं नागिन डांस नचणा.. और ‘खुराफाती अखियां..’ अच्छे लगते हैं। दिल्ली की गलियों और बाजारों को बड़ी ही सच्चाई के साथ दिखाती है यह फिल्म। परिवार के साथ बैठ कर इसे एक बार देखा जा सकता है।

कलाकार: तुषार कपूर, विशाखा सिंह, रणवीर शौरी, विनय पाठक, डॉली आहलूवालिया, रवि किशन, बृजेंद्र काला
निर्देशक: शशांत ए  शाह
निर्माता: कृषिका लुल्ला
बैनर: ईरोज इंटरनेशनल, मल्टीस्क्रीन मीडिया
संगीत: जयदेव कुमार, आर डी बी, यो यो हनी सिंह, असीम अहमद अब्बासी
गीत: कुमार
कहानी-पटकथा: जफर ए  खान
संवाद: अक्षय वर्मा

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