Tuesday 6 August 2013

बड़ी गहरी हैं माफिया की जड़ें फरजंद

अहमद| उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से सबका ध्यान पिछले 40 साल से फल-फूल रहे माफिया साम्राज्य और समानांतर अर्थव्यवस्था की ओर गया है। आज जिस रेत माफिया की चर्चा हो रही है, वह कोई एक माफिया गिरोह नहीं है
। दिल्ली से सटे गाजियाबाद-नोएडा से लेकर बिहार होते हुए झारखंड और ओडिशा तक रेत के अवैध खनन और तस्करी का धंधा इन दिनों खूब चल रहा है। इस रेत माफिया के अपने-अपने गिरोह हैं और कहीं-कहीं इन गिरोहों की नेटवर्किग भी है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट के हिसाब से देखें, तो इस पूरे इलाके में सिर्फ रेत माफिया नहीं हैं। भू-माफिया, जंगल माफिया, पत्थर माफिया, तेंदू पत्ता माफिया, चिप्स माफिया, आयरन ओर माफिया, कोयला माफिया, मोरुम यानी लाल बालू माफिया, मिट्टी माफिया, माइनिंग माफिया, कई तरह के माफिया इन इलाकों की खबरों में लगातार बने रहते हैं। इनके अलावा, शिक्षा माफिया और सरकारी ठेका माफिया का भी जिक्र आता रहता है।

इसी माफिया ने कभी मिर्जापुर सोनभद्र में एक लाल पत्थर के पहाड़ को ही बेदर्दी से तराश डाला था और जिससे पूरा का पूरा पहाड़ ही ध्वस्त हो गया। यह भी कहा जाता है कि अकेले उत्तर प्रदेश में माफिया गिरोहों की सालाना आमदनी राज्य के  पूरे बजट से अधिक है। यह भी दिलचस्प है कि तकरीबन हर सरकार इन पर नकेल कसने की बात करती है, लेकिन साथ ही, माफिया का कारोबार व असर बढ़ने की खबरें भी आती रहती हैं। वैसे उत्तर प्रदेश में माफियागिरी तब शुरू हुई थी, जब किसी ने इस खौफनाक शब्द को मुंबई या दुबई में भी नहीं सुना था। यह अलग बात है कि यह शब्द या तो मुंबई की फिल्मों से आम लोगों की जुबान पर आया, फिर हाजी मस्तान, करीम लाला और दाऊद इब्राहिम जैसे गैंग लीडरों के नाम चर्चा में आने के बाद। इटली के सिसली (माफिया का जन्मस्थान) से सीधे यह माफिया शब्द उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल, खास तौर से गोरखपुर और फिर बलिया से होता हुआ धनबाद-झरिया की कोयला खदानों तक जा पहुंचा।

इटली में इसकी शुरुआत दिलचस्प है। वहां विन सदी में मफुसू नाम का एक बड़ा रंगबाज था। उसी के नाम पर माफिया या मफिओसो नाम पड़ा। दूसरी ओर, लोग कहते है माफिया शब्द अरबी के मह्यास (दादागिरी) से जुड़ा है। दरअसल, माफिया शब्द का अर्थ होता है राज्य संपत्ति और आर्थिक गतिविधि पर कब्जा जमाने और लूटने के लिए अपराधी और स्टेट-प्लेयर्स, यानी राजनेता और नौकरशाही की साठगांठ। वैसे, भारत में आज इसका प्रयोग लगभग इसी अर्थ में होता है। इसे कई तरह के जोखिम, खतरों और अथाह अवैध कमाई से जोड़कर देखा जाता है, इसीलिए यह अन्य अपराधों से अलग है।

एक बार जब यह गोरखधंधा शुरू हुआ, तो इससे खूनी संघर्ष, आतंक और लूट की कई कहानियां भी जुड़ गईं, खासकर गोरखपुर और धनबाद-झरिया इलाके में। यह सिलसिला गोरखपुर में पूवरेतर रेलवे से 1970-80 के दशक में शुरू हुआ, जहां स्क्रैप और अन्य रेलवे ठेकों को लेकर कुछ गिरोहों में जंग शुरू हुई। इसी जंग के बाद जातीय आधार पर दो नेता सामने आए, जिन्होंने राजनीति में भी अपना दबदबा बनाया और उनके गिरोंहों में संघर्ष आए दिन की बात हो गई। दूसरी तरफ, उन्हीं दिनों कोयले का राष्ट्रीयकरण हुआ। इसके पहले के दौर में धनबाद- झरिया में निजी खान मालिकों ने पहले से ही कई बाहुबलियों और लठैतों को पाल रखा था, जिनका काम था मजदूरों व खासकर उनके नेताओं से निपटना। वे ही बाद में माफिया बन गए। समय के साथ-साथ इनकी ताकत और इनका रुतबा, दोनों बढ़े। इस बढ़े हुए रुतबे ने उनके अंदर राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी पैदा कीं। इसके बाद ही शुरू हुआ डॉन कहलाने वाले नेताओं के विधान सभाओं और लोकसभा में जाने का सिलसिला।

इनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब धनबाद में कोयला माफिया के सरताज कहलाने वाले सूर्यदेव सिंह गिरफ्तार हुए, तो प्रधान मंत्री रहते हुए चंद्रशेखर उनके पक्ष में खड़े दिखाई दिए। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने 1998 में तत्कालीन गृह विभाग से प्रदेश में सक्रिय माफिया की बाकायदा एक सूची तैयार करवाई थी, जिसके अनुसार, उस समय उत्तर प्रदेश में 744 माफिया गिरोह सक्रिय थे और तब उनका सालाना टर्नओवर 10,000 करोड़ रुपये का था। उस समय तक कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा था, जिसमें माफिया सक्रिय न हों। तब उनके सफाए के लिए स्पेशल टास्क फोर्स का गठन हुआ था और कई माफिया सरगना मारे गए। इसके बावजूद माफियागिरी खत्म नहीं हुई। अप्रैल 2006 में हाई कोर्ट ने माफिया पर सरकार से रिपोर्ट मांगी थी, जिसके जवाब में प्रदेश सरकार ने स्वीकार किया था कि हर आर्थिक क्षेत्र में माफिया का दखल है। सामाजिक शोधकर्ता और पत्रकार उत्कर्ष सिन्हा का दावा है कि आज उनकी आमदनी प्रदेश सरकार की कुल आमदनी से भी ज्यादा है। यह भी कहा जाता है कि राजनेता और अधिकारी सब जानते हैं, मगर कुछ करते नहीं।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी माफिया के खिलाफ कई बड़ी पहल कीं। उनके पहले कार्यकाल में लगभग 65000 (अब तक एक लाख से अधिक) अपराधी फास्ट ट्रैक कोर्ट के माध्यम से जेल गए। इनमें कई नामी-गिरामी अपराधी और माफिया सरदार शामिल थे। लेकिन पिछले दिनों जब ‘डॉन’ की छवि वाले विधायक अनंत सिंह पटना में एके-47 लहराते हुए दिखाई दिए, तो लगा कि अभी इस दिशा में बहुत होना शेष है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के राजीव कुमार के अनुसार, बिहार विधान सभा में 2005 के मुकाबले 2010 में अधिक अपराधी आए और माफिया छवि के विधायकों की संख्या बढ़ी थी। यह भी कहा जा रहा है कि बिहार में राजनीतिक समीकरण जिस तरह से बदल रहे हैं, उसमें उनकी पूछ आने वाले दिनों में और बढ़ सकती है।
इस पूरे क्षेत्र में माफिया के पांव जमाने का इतिहास बहुत लंबा है। उसके मुकाबले उन पर लगाम कसने और उन्हें पूरी तरह खत्म करने के प्रयास बहुत कम और छिटपुट ही हुए हैं। यह ऐसी लड़ाई है, जिसे राजनीति और प्रशासन को मिलकर ही लड़ना होगा। अगर राजनीति और प्रशासन ही एक-दूसरे से मुठभेड़ की मुद्रा में दिखाई दिए, तो जीत माफिया की ही होगी।

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