Sunday 4 August 2013

हिंदी की जी-जी




जी’ है, तो हिंदी है। ‘जी’ न हो, तो हिंदी न हो। जब ‘जी’ नहीं था, तब हिंदी नहीं थी। अब ‘जी’ है, तो हिंदी है।
ब्रज भाषा में कभी ‘जू


’ चलता था, लेकिन अंग्रेजी के ‘जू’ को देख ब्रज का ‘जू’ डरकर भाग गया। ‘जू’ की जगह ‘जी’ आ गया। जब से जी चलन में आया है, तब से यत्र-तत्र

लगता रहता है। ‘जी’ हिंदी के गले की वह घंटी है, जो साहित्य के खेत में चरते समय बजा करती है। समकालीन हिंदी में सर्वाधिक बोला जाने वाला शब्द ‘जी’ है। कहते हैं कि आर्य समाज के प्रभाव में हिंदी में जी का चलन बढ़ा। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसे स्वयंसेवकों के लिए अनिवार्य कर दिया। हम तो अटकल लगा रहे हैं। जी की असली जन्म कुंडली शब्द विज्ञानी मित्र अरविंद कुमार जी को ही मालूम होगी।
जी का उपयोग कभी भी, कहीं भी किया जा सकता है। आप आगे लगाइए, पीछे लगाइए। नीचे लगाइए, ऊपर लगाइए। हिंदी में जी का महत्व वही है, जो गणित में शून्य का है। किसी गुंडे को गुंडाजी कहकर तो देखिए, वह जरूर धन्यवाद देगा। जी की महिमा देखकर कुछ लोग अपने नाम के आगे पीछे इसे लगाते रहे हैं। लल्लूजी लाल इसके पहले प्रयोगकर्ता कहलाते हैं। जी सबसे बड़ा अव्यय है। आप कितना भी इस्तेमाल कीजिए, खर्च नहीं होता जी। जी में दस प्रतिशत श्रद्धा, 20 प्रतिशत भक्ति, 30 प्रतिशत चाटुकारिता और 40 प्रतिशत ड्रामा होता है। जब कभी आपके नाम के पीछे जी लगे, तभी हिसाब लगाइए। आपको यह प्रतिशत जरूर मिलेगा। अगर नाम के आगे और पीछे लगे, तो समझिए कि प्रार्थी आपकी कृपा खर्च कराए बिना टलने वाला नहीं। जी हिंदी में आधुनिकता की डिग्री है, शिष्टाचार की सर्टिफिकेट है, मित्र-संवाद का सेतु है। आम आदमी की हिंदी अनौपचारिक है। वहां कोई जी नहीं लगाता। सब ‘ओए’ ‘अबे’ ‘अरे’ में संवाद करते हैं। गली-मुहल्लों में आपसी बातचीत के संबोधक शब्द इतने सीधे व दो टूक होते हैं कि उन्हें न लिखना ही ठीक है।
बड़ी मुश्किल से हिंदी में औपचारिकता आई है। इसका श्रेय जिस एक शब्द को जाता है, वह ‘जी’ है। ‘जी’ हिंदी के पब्लिक डोमेन में तहजीब की तरह आया है। जहां ‘जी’ होता है, वहां देवता वास करते हैं। जिसके आगे लगता है, वह देवतुल्य लगता है। महाभारत  वाले राही मासूम रजा ने जी के संग बड़ी ज्यादती की। ‘जी’ की जगह ‘श्री’ को दी, तो माता जी माताश्री और तात तात श्री हुए। पिता जी पिताश्री हो गए। नाना नानाश्री तक कहे जाने लगे। इतनी श्री-श्री बरसी कि जो श्रीहीन कहे गए, वे तक श्रीयुत होने लगे। एक दिन रावण भी रावणश्री हो जाएगा। जी जितना व्यंजनात्मक है, उतना ही श्लिष्ट है। जी ‘मल्टीपरपज’ है। जी से जी जुड़ाता है। छोटे के पीछे लगाएं, तो जी मजाक माना जाता है। बड़े के पीछे लगाएं, तो आदर मूलक होता है। जी अंग्रेजी तक में घुस गया है। आप सर के आगे ‘सरजी’ लगाकर देखिए। ‘सरजी’ कहते ही अंग्रेज तक का मुखारविंद खिल जाएगा! हमारे हाथरस के काका हाथरसी के अलावा एक अन्य अद्भुत आशु कवि हो गए- स्वर्गीय निर्भय हाथरसी। उन्होंने ‘जी’ को लेकर एक लंबी कविता लिखी, जिसकी एक लाइन अब तक हमारी स्मृति में अटकी रह गई। आप भी सुन लें-
जी जी जिसके आगे पीछे लगी रहे, वह जीजाजी।

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