Sunday 4 August 2013

बोधगया को तो बख्शा होता

Indian simple house wife


पिछले महीने न्यूयॉर्क में इं
सानी जज्बे की अनोखी दास्तान सुनने को मिली। हम ‘न्यूज कॉरपोरेशन’ के मुख्यालय की कैंटीन में बैठे थे। वहां वॉल स्ट्रीट जर्नल और डाऊ जोन्स के दुनिया भर से आए वरिष्ठ पत्रकारों के साथ रात्रि-भोज चल रहा था। उसी दौरान मेजबान लुबिट्ज मेरेडिथ को जानने-समझने का मौका मिला। मालूम नहीं था कि दिन भर मशीन की तरह सक्रिय रहने वाली इस महिला के अंदर मानवीय भावनाओं का अद्भुत ज्वार-भाटा उमड़ता है।
लुबिट्ज का परिचय दे दूं। वह डाऊ जोन्स में मानव संसाधन विभाग में वाइस प्रेसीडेंट (टैलेंट मैनेजमेंट) के ओहदे पर हैं। उनके सौजन्य से ही हम सब वहां पर एकत्रित हुए थे। उसी डिनर के दौरान अचानक उन्होंने पूछा कि आप हिन्दुस्तानियों में शादी से पहले युवक और युवतियां क्या एक-दूसरे से मिलते-जुलते नहीं हैं? क्या वहां मां-बाप की इच्छा ही सबसे ऊपर है? वे लोग, जो एक-दूसरे को जानते तक नहीं, कैसे जिंदगी भर साथ रह लेते हैं? खुद आपने शादी कैसे की? मैंने उन्हें बताया कि हमारा रिश्ता भी अभिभावकों ने ही तय किया था और हमें गए 29 साल में जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है, पर आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं? मैंने प्रतिप्रश्न किया। जवाब में उन्होंने जो कहा, वह आपके भी जानने योग्य है।
लुबिट्ज जन्म से यहूदी हैं। वह कट्टर धार्मिक रीति-रिवाजों के बीच पलीं-बढ़ीं। 2001 की शुरुआत में एक नौजवान से उनकी दोस्ती हुई। उन्हीं दिनों ओसामा बिन लादेन अमेरिका पर कहर बरपाने की अपनी योजना को अंजाम दे रहा था। यह मित्रता रिश्ते में तब्दील हो ही रही थी कि 9/11 का हादसा हो गया। इस बीच वे दोनों थाईलैंड, इंडोनेशिया, पाकिस्तान और हिन्दुस्तान आने की योजना बना चुके थे। उनका मकसद था कि तीन महीने के इस भ्रमण के दौरान वे एक-दूसरे को जान-समझ लें और शादी का फैसला कर सकें, पर 9/11 का हादसा रास्ते का रोड़ा बन गया था। लुबिट्ज के माता-पिता ने वीटो लगा दिया कि तुम इस लड़के के साथ अब और मेल-जोल नहीं रखोगी। ऐसा नहीं है कि वह युवक जन्म से अमेरिकी नहीं था, पर उसमें एक ‘कमी’ थी। उसके माता-पिता ईरान से आकर ‘धरती के स्वर्ग’ में बसे थे। लुबिट्ज के घरवालों के लिए आश्चर्य का विषय था कि उनकी बेटी एक ईरानी मुस्लिम की मोहब्बत में कैसे पड़ गई? फिर 9/11 का हमला! विरोध जारी रहा, पर वे नहीं माने। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का वीजा तो उन्हें नहीं मिल सका, लेकिन वे थाईलैंड, इंडोनेशिया और आसपास के देशों में जमकर घूमे। लौटते ही उन्होंने शादी की और अब उनके जुड़वां लड़के तीन साल के हो गए हैं।
मैंने तब तक यहूदी और मुसलमान का कोई जोड़ा देखा या सुना नहीं था। लुबिट्ज अपने पति की अनन्य प्रशंसक हैं। उस ईरानी नौजवान की वजह से ही वह यह समझ सकीं कि इस्लाम में इंसानी मूल्यों की कितनी कद्र है और एशिया के लोग अपने परिवार को लेकर कितने कर्तव्यनिष्ठ हैं! आप सोच रहे होंगे कि मैंने आपको यह कथा क्यों सुनाई? वजह बताता हूं। पिछले दिनों बोधगया में हुए धमाकों ने मुझे अंदर तक हिला दिया है। अब तक गिरजाघरों, मंदिरों और मस्जिदों में कत्लोगारत मचता रहा है। इनकी वजह से हम इतनी नौटंकी देख चुके हैं कि संवेदनाएं भोथरी हो गई हैं। किसी बौद्ध मंदिर पर हमले को पहली बार ‘अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद’ से जोड़ा जा रहा है। यह वह जगह है, जहां गौतम को बुद्धत्व हासिल हुआ था। इसीलिए इस स्थान को ‘बोधगया’ कहते हैं। बोधगया यानी जो ‘बोध’ कराए। क्या इस दुनिया में कुछ लोग इतने जड़ हो गए हैं कि ऐसे स्थानों को भी दूषित करने पर आमादा हैं?
खबर आई है कि ‘इंडियन मुजाहिदीन’ ने तथाकथित तौर पर ट्विटर पर इस हमले की जिम्मेदारी कुबूल की है और अन्य स्थानों पर भी हमले करने का मनसूबा जताया है। प्रतिरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर हुए हमलों की प्रतिक्रिया में संसार के सर्वाधिक पूजनीय बौद्ध तीर्थ-स्थानों में से एक पर हमला हुआ है। आने वाले दिनों में विश्व के और बौद्ध-स्थल निशाना बनाए जा सकते हैं। यह अफसोस की बात है। मैं जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब अक्सर सारनाथ के बौद्ध मंदिर में जा बैठता था। नौजवानी का गरम लहू अक्सर अनदेखे सवालों से खौल उठता है। बेचैनी को करार देने के लिए इससे बेहतर स्थान और कौन सा हो सकता था? गया में गौतम को बुद्धत्व हासिल हुआ था। बुद्ध ने सारनाथ से ही ‘धम्म’ का प्रचार आरंभ किया था। मन में हूक उठती है कि नई पीढ़ी के नौजवान अगर इन सिद्ध स्थानों पर जाकर चिंतन-मनन करना चाहेंगे, तो क्या उन्हें सुरक्षाकर्मियों की संगीनों, मेटल डिटेक्टरों और सघन तलाशी अभियानों के बीच से गुजरना होगा? तथागत की प्रतिमा तक पहुंचने से पहले अगर इतने तनावों से गुजरना जरूरी है, तो फिर वहां जाने का लाभ क्या?
यकीनन घृणा के इस दौर को रुकना चाहिए। कुछ साल पहले वेटिकन में कई किलोमीटर लंबी लाइन में कुछ मिनट खड़े होने के बाद मैं अपनी वर्षों की अभिलाषा छोड़कर इसलिए बाहर निकल आया था, क्योंकि ईसाइयत के इस परम पवित्र स्थान पर इतनी सुरक्षा मुझे बेचैन करने लगी थी। इसी तरह वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर में जाने की हिम्मत नहीं होती। मंदिर को तो छोड़िए, आसपास की गलियों में घूमने के लिए भी अब इसी तरह के तामझाम से जूझना पड़ता है। इक्कीसवीं शताब्दी के नौजवानों को सोचना होगा कि वे शांति के प्रतीकों की गरिमा के लिए क्या कर सकते हैं? पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया को टटोल रहा हूं और हक्का-बक्का हो गया हूं। ऐसा लगता है, जैसे घृणा के सौदागरों ने इन पर कब्जा कर लिया है। अमन और भाईचारे के पैगाम कम हैं, अशांति के सौदागरों का मायाजाल हर क्षण विस्तार ले रहा है। कमाल देखिए। मालूम ही नहीं पड़ता कि क्या सच है और क्या झूठ? सोशल मीडिया के इस विस्तार ने अगर कुछ अच्छी रीति-नीति स्थापित की है, तो उससे कहीं ज्यादा खतरे पैदा कर दिए हैं। अराजकतावादियों को इससे पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना वैचारिक प्रदूषण फैलाने की इतनी आजादी नहीं थी। कमाल यह कि धार्मिक स्थलों का अनादर धर्म के नाम पर किया जा रहा है। विश्व बिरादरी को इस पर विचार करना ही होगा।
जिस शाम लुबिट्ज से मुलाकात हुई, उसके अगले दिन ही ‘गूगल’ के दफ्तर में आधा दिन बिताने का मौका मिला। वहां के लोगों की विचार संपन्नता, दफ्तर की भव्यता और किचन से लेकर बाथरूम तक करीने का रख-रखाव प्रभावित करता है। वहां के कर्ता-धर्ताओं से मैंने पूछा कि यह तो अच्छा है कि आप ज्ञान और सूचना का प्रवाह कर रहे हैं, पर इसके साथ जहालत के अंधेरे के विस्तार का भी जरिया बन रहे हैं। इसे रोकने के लिए आप क्या कर रहे हैं? भावरहित मुस्कराहट के साथ जवाब मिला, हम प्रयास कर रहे हैं। हर हिट के साथ धन कमाने की कामना रखने वाले सौदागरों की इस बात पर कितना यकीन किया जा सकता है! हमें तय करना होगा कि यह दुनिया इनसानों की है और उन्हीं की मर्जी से चलती है, सर्च इंजनों से नहीं।

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