Sunday 4 August 2013

बढ़ते असंतोष को तमाशा न समझें

Indian wife
क्या आपको नहीं लगता कि 21वीं सदी का दूसरा दशक अपने साथ विश्वव्यापी परिवर्तन की कामना लेकर आया है? पिछले तीन सा
ल पर नजर डाल देखिए, साफ हो जाएगा। ‘धरती के स्वर्ग’ अमेरिका से अशांति के अलाव में जल-भुन रहे अफगानिस्तान तक आम आदमी के असंतोष का लावा रह-रहकर उफन पड़ता है।
ताजा उदाहरण मिस्र का है। कुछ महीने पहले जो लोग 30 साल तक मुल्क के तानाशाह रहे हुस्नी मुबारक को पिंजरे में खड़ा देखकर खुश थे, वे अचरज में हैं। काहिरा की सड़कों पर खूनी झड़पें लौट आई हैं और एक साल पुरानी जम्हूरियत दम तोड़ चुकी है। इसी तरह, लीबिया के हुक्मरान कर्नल मुअम्मर अल गद्दाफी को हम लोगों ने टीवी पर पिटते हुए देखा था। लोग उन्हें जूतों-पत्थरों से मार रहे थे। इसी पिटाई से उनकी मौत हो गई थी। तभी यह सवाल उठा था कि यह जनाक्रोश है या अराजकता? क्या यह तरीका इस देश को सच्चे जनतंत्र की ओर ले जाएगा? अकेले लीबिया या मिस्र का हाल-बेहाल नहीं है। वे तमाम देश, जिन्हें अमेरिका समर्थित मीडिया ने ‘अरब स्प्रिंग’ के प्रवर्तकों में शुमार किया था, छटपटाहटों के दौर में फंस गए हैं। अन्य विकासशील देशों की हुकूमतें भी अस्थिर हो चली हैं और आम आदमी की पीड़ाएं आसमान छूने लगी हैं।
भरोसा न हो, तो तुर्की का हाल देख लीजिए। एक पार्क की जगह मॉल बनाने की इजाजत देने पर वहां के लोग इतने भड़क गए कि सबसे खूबसूरत शहरों में शुमार इस्तांबुल, नरक की आग में जलने लगा। इसी तरह, इंडोनेशिया में साल की शुरुआत में ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए। नजरों को यदि ग्लोब पर थोड़ा-सा और दौड़ाएं, तो लगेगा कि जन-साधारण के मन में दबा पड़ा गुस्सा हर ओर बाहर आने को बेताब है। पिछली फरवरी में नाइजीरिया में जब तेल के दाम बढ़ाए गए, तो नौजवानों ने रास्ते जाम कर दिए और जिंदगी ठहर गई। कीनिया और तंजानिया में भी भ्रष्टाचार व कुशासन के खिलाफ आंदोलन तेज हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि अफ्रो-एशियाई देशों का ही यह हाल है।
दक्षिण-पूर्वी यूरोपीय देश बुल्गारिया में भी लाखों लोग पिछले दिनों आंदोलित हो गए। उनका आरोप था कि सरकार पक्षपाती और भाई-भतीजावादी है। ग्रीस के हालात आपको मालूम ही हैं। वहां की सरकार दिवालिया हो गई है और ऐसे तमाम फोटो जेहन में कौंधते हैं, जहां लोग सड़कों पर इकट्ठा होकर विलाप कर रहे हैं। उन्हें वर्तमान के साथ भविष्य भी स्याह नजर आने लगा है। ब्राजील में तो पिछले हफ्ते गजब ही हो गया। वहां के नागरिक इस बात पर उफन पड़े कि सरकारी खजाने का जो पैसा जन-कल्याण में खर्च होना था, उसे 2014 में होने वाले फुटबॉल विश्व कप और 2016 के ओलंपिक की तैयारी में लुटाया जा रहा है। नाराज लोग कहते हैं कि हमें फुटबॉल और ओलंपिक नहीं, बेहतर जिंदगी चाहिए।
भारत और पाकिस्तान भी इससे अछूते नहीं हैं। अगस्त, 2011 में अन्ना हजारे जब दिल्ली के रामलीला मैदान में आ डटे थे, तब लाखों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। बाद में ‘निर्भया’ के साथ हुए बलात्कार ने राजधानी के नौजवानों को इतना आंदोलित कर दिया कि हुक्मरां चकरा गए। हफ्तों तक ‘लुटियन-जोन’ में जिंदगी अस्त-व्यस्त रही। उस उफनती, उमड़ती और उत्तेजित भीड़ का कोई नेता नहीं था। पुलिस और अर्धसैनिक बल उन्हें रोकने में नाकाम हो गए थे। इसी तरह, पाकिस्तान में डॉक्टर ताहिर उल कादरी की आवाज पर हजारों लोग इस्लामाबाद की सड़कों पर आ डटे थे। फौजी हुक्मरानों के बूटों तले रहने के आदी मुल्क में इतना अमनपूर्ण आंदोलन चौंकाने वाला था।
खुद धरती का स्वर्ग अमेरिका इस जन-ज्वार से अछूता नहीं है। ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट ने वहां के पूंजीवाद को उसके ही गढ़ में जबर्दस्त चुनौती दी है। दो हफ्ते पहले मैं खुद वाशिंगटन में था। वहां देखा कि व्हाइट-हाउस के ठीक बाहर कुछ लोग हुकूमत के अत्याचार के खिलाफ भाषण दे रहे थे और दर्जनों स्त्री-पुरुष तालियां बजा रहे थे। अपने आक्रोश का इजहार करते इन लोगों से कुल डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर वह शख्स रहता है, जिसे लोग संसार का सबसे ताकतवर इंसान कहते हैं। ओबामा के अपने आवास के बाहर उन्हें चुनौती दी जा रही थी, पर अमेरिकी लोकतंत्र की यही खूबी है कि वह अपनी उदारता से सब कुछ जज्ब कर लेता है।
यहीं सवाल उठता है कि अमेरिकी सत्तातंत्र अपने लोगों के लिए उदार है, पर शेष दुनिया के लिए इतना अनुदार क्यों है? जॉर्ज बुश ने सोवियत संघ को बिखेरने में बड़ी भूमिका अदा की थी। वह और उनके अलमबरदार ऐसा करते वक्त भूल गए कि इससे पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के तमाम देश अव्यवस्था के शिकार हो जाएंगे। इसी तरह, उनके बेटे जॉर्ज डब्ल्यू बुश (जूनियर) ने इराक और अफगानिस्तान को दोजख की आग में झोंक दिया। लीबिया और ट्यूनीशिया को ओबामा ने अराजकता की ओर धकेला। इससे धरती की बड़ी आबादी को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता दिखने लगा। इस उठा-पटक ने अफ्रो-एशियाई देशों के करोड़ों लोगों में कितना आक्रोश और असुरक्षा फैलाई, यह समाज-विज्ञानियों के लिए शोध का विषय है।
अन्य देशों में जनाक्रोश की कई और वजहें हो सकती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक नई विश्व-व्यवस्था बनी थी। मोटे तौर पर इसके तीन पाये थे- अमेरिका की अगुवाई में पूंजीवादी मुल्क, सोवियत संघ के नेतृत्व में जनवादी देश और तीसरी दुनिया, यानी विकासशील वतन। इस ढांचे में कई तरह के खोट थे, इसलिए 1991 में इसका एक पाया ढह गया। सोवियत संघ के पतन को बहुत-से लोगों ने समाजवाद की पराजय माना और यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि पूंजीवाद ही मानवीय विकास की असली कुंजी है। तीन पायों पर दुनिया लगभग साढ़े चार दशक खड़ी रही, लेकिन पूंजीवाद का स्तंभ तो बीस साल में ही डगमगाने लगा है। मौजूदा असंतोष इसका जीता-जागता गवाह है।
एक बात और। सोशल मीडिया के कारण अब दुख-दर्द स्थानीय नहीं रह गए हैं। यदि एक अरब देश में गुस्सा पनपता है, तो वह तत्काल आसपास के मुल्कों में फैल जाता है। वहां जब नाराजगी का ज्वार उभरने लगता है, तो समूची दुनिया में सुनामी की आहट सुनाई पड़ने लगती है। अफसोस यह है कि हर तरह की सरकारें इन्हें काबू करने में नाकाम साबित हो रही हैं। इससे आतंकवादियों, अराजकता के हमसायों और अलगाव के हिमायतियों की बन आने की आशंकाएं बढ़ गई हैं। मिस्र इसका उदाहरण है। वहां तानाशाही हटाकर लोकतंत्र लाया गया और अब जम्हूरियत की जगह फौज आ गई है। सैनिक शासन लंबे समय तक जन-कल्याणकारी साबित नहीं हो सकता, यकीन न हो तो अपने पड़ोसी पाकिस्तान का हाल देख लीजिए।
अफसोस इस बात का है कि विकासशील देशों के संसाधनों पर विकसित बन बैठे देश महज तमाशाई बने बैठे हैं। वे समझ नहीं पा रहे कि सदियों तक उन्होंने जिन देशों के ‘कच्चे माल’ पर अपने स्वार्थ की रोटियां पकाईं, वे अब उनसे जवाबदेही की उम्मीद कर रहे हैं। उन्हें सम्हलना होगा और अपना तौर-तरीका बदलना होगा।

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