यही मेरी ठुमरी है। यही दादरा है। इसे ही कजरी कहिए, इसे ही ध्रुपद कहिए।
चेक बिन चैन कहां प्यारे? मेरा सबसे बड़ा रचनात्मक क्षण तब होता है, जब कोई
चेक आता है। अगर वह न आए, तो लिखना दुश्वार होता है। उसके बिना एक आइडिया
तक नहीं आता। वह आता है, तो लैपटॉप पर उंगलिया यूं मचलती हैं, जैसे पंडित
रविशंकर सितार बजा रहे हों।
मेरी रचना के तीन क्षण असली हैं। मुक्तिबोध के कहे तीन क्षण नकली हैं। आप चेक करके देख सकते हैं।
पहला क्षण है: ‘वचनात्मक!’
दूसरा है: ‘रचनात्मक!!’
तीसरा है: ‘खर्चनात्मक!!!’ वचनात्मक तब होता है, जब मेरा मोबाइल बज उठता है और कोई ऐसे प्यारे वचन बोलता है कि सुधीशजी एक लेख भेज दें। पूछता हूं कि कितने शब्दों का? उधर से कहा जाता है कि यही कोई सात-आठ सौ शब्दों का। इसके बाद लैपटॉप खोलते ही अपना मीटर डाउन हो जाता है। जब तक लैपटॉप पर उंगलियां चलती हैं, तब तक ‘रचनात्मक’ क्षण चलता है। इसके आगे का क्षण ‘खरचनात्मक’ होता है। यह बहुत कष्टदायक होता है। नित्य मनाता हूं कि फालतू के इस तीसरे क्षण को खत्म क्यों नहीं कर देते चिदंबरम जी। हिंदी के लेखक होते, तो हमारी पीड़ा जानते। संगठनों में लेखकों की जगह निठल्ले एक्टिविस्ट भरे हैं, जब वहां लेखक ही नहीं हैं, तो हमारी पीर वे क्या जानेंगे? रचनात्मक क्षण के दो-तीन महीने बाद एक चेक आता है, जिसका टीडीएस उसके जन्म के समय ही ‘इन एडवांस’ काटा जा चुका होता है। इस ‘टीडीएस कट’ से विखंडित चेक को बैंक में डालना और फिर सेविंग्स से निकालकर खर्चा चलाना। गालिब को भी खरचनात्मक दर्द सताता था। इसीलिए अपने दर्द के बारे में पूछते फिरते थे- आखिर इस दर्द की दवा क्या है? एक-एक शब्द तोलकर लिखता हूं। लेकिन हर शब्द का एक खास प्रतिशत टीडीएस के हवाले हुआ जाता है। यही असली शब्द साधना है। मेरे हर शब्द के संग ‘अंधी पीसे कुत्ता खाय’ वाला न्याय हो रहा है। लिखें हम, खाएं वो! या इलाही ये माजरा क्या है? मैं हर शब्द में लुट रहा हूं। किसी का दस फीसदी, किसी का बीस फीसदी, किसी का तीस फीसदी ‘अर्थ’ एडवांस में कट जाता है। शब्दार्थ की ‘बहुलता’ कहां है? यहां तो हर शब्द का पहला अर्थ कोई न कोई काट लेता है। जब मूलार्थ ही कट गया, तो फिर बचा क्या? देरिदा गुजर गए, वरना एक दिन उनसे पूछता कि आपकी ‘अर्थ बहुलता’ वाली थियरी में मेरे शब्द की ‘अर्थ-कटिंग’ का क्या जबाव है? हर कटा हुआ चेक मेरी रचना का कटा हुआ अंश होता है! मेरे लेखन से जलने वाले अपने कलेजे ठंडे कर लें कि जितनी कमाई के लिए मुझे बदनाम करते रहते हैं, वह कट-कटकर आती है। मेरे लिखे से सरकारी खजाना कुछ तो भरता है। सरकारी खजाने के हर पैसे में मेरे लेखन का निशान रहता है। इसी अर्थ में मेरा लेखन ‘विकास’, ‘वृद्धि’ से सीधे जुड़ता है। जो सड़कें बनती हैं, जो बिजली बनती है, जो पानी आता है, जो शिक्षा, स्वास्थ्य आता है और नरेगा, मनरेगा होता है, उन सबमें भी कहीं न कहीं मेरे कटे ‘टीडीएस’ का योगदान है। इस जन-हितकारी काम पर कोई धन्यवाद तक नहीं देता। मेरी जेब काटी और मुझसे थैंक्यू तक न कहा। बड़ा थैंकलेस जमाना है महाराज!
मेरी रचना के तीन क्षण असली हैं। मुक्तिबोध के कहे तीन क्षण नकली हैं। आप चेक करके देख सकते हैं।
पहला क्षण है: ‘वचनात्मक!’
दूसरा है: ‘रचनात्मक!!’
तीसरा है: ‘खर्चनात्मक!!!’ वचनात्मक तब होता है, जब मेरा मोबाइल बज उठता है और कोई ऐसे प्यारे वचन बोलता है कि सुधीशजी एक लेख भेज दें। पूछता हूं कि कितने शब्दों का? उधर से कहा जाता है कि यही कोई सात-आठ सौ शब्दों का। इसके बाद लैपटॉप खोलते ही अपना मीटर डाउन हो जाता है। जब तक लैपटॉप पर उंगलियां चलती हैं, तब तक ‘रचनात्मक’ क्षण चलता है। इसके आगे का क्षण ‘खरचनात्मक’ होता है। यह बहुत कष्टदायक होता है। नित्य मनाता हूं कि फालतू के इस तीसरे क्षण को खत्म क्यों नहीं कर देते चिदंबरम जी। हिंदी के लेखक होते, तो हमारी पीड़ा जानते। संगठनों में लेखकों की जगह निठल्ले एक्टिविस्ट भरे हैं, जब वहां लेखक ही नहीं हैं, तो हमारी पीर वे क्या जानेंगे? रचनात्मक क्षण के दो-तीन महीने बाद एक चेक आता है, जिसका टीडीएस उसके जन्म के समय ही ‘इन एडवांस’ काटा जा चुका होता है। इस ‘टीडीएस कट’ से विखंडित चेक को बैंक में डालना और फिर सेविंग्स से निकालकर खर्चा चलाना। गालिब को भी खरचनात्मक दर्द सताता था। इसीलिए अपने दर्द के बारे में पूछते फिरते थे- आखिर इस दर्द की दवा क्या है? एक-एक शब्द तोलकर लिखता हूं। लेकिन हर शब्द का एक खास प्रतिशत टीडीएस के हवाले हुआ जाता है। यही असली शब्द साधना है। मेरे हर शब्द के संग ‘अंधी पीसे कुत्ता खाय’ वाला न्याय हो रहा है। लिखें हम, खाएं वो! या इलाही ये माजरा क्या है? मैं हर शब्द में लुट रहा हूं। किसी का दस फीसदी, किसी का बीस फीसदी, किसी का तीस फीसदी ‘अर्थ’ एडवांस में कट जाता है। शब्दार्थ की ‘बहुलता’ कहां है? यहां तो हर शब्द का पहला अर्थ कोई न कोई काट लेता है। जब मूलार्थ ही कट गया, तो फिर बचा क्या? देरिदा गुजर गए, वरना एक दिन उनसे पूछता कि आपकी ‘अर्थ बहुलता’ वाली थियरी में मेरे शब्द की ‘अर्थ-कटिंग’ का क्या जबाव है? हर कटा हुआ चेक मेरी रचना का कटा हुआ अंश होता है! मेरे लेखन से जलने वाले अपने कलेजे ठंडे कर लें कि जितनी कमाई के लिए मुझे बदनाम करते रहते हैं, वह कट-कटकर आती है। मेरे लिखे से सरकारी खजाना कुछ तो भरता है। सरकारी खजाने के हर पैसे में मेरे लेखन का निशान रहता है। इसी अर्थ में मेरा लेखन ‘विकास’, ‘वृद्धि’ से सीधे जुड़ता है। जो सड़कें बनती हैं, जो बिजली बनती है, जो पानी आता है, जो शिक्षा, स्वास्थ्य आता है और नरेगा, मनरेगा होता है, उन सबमें भी कहीं न कहीं मेरे कटे ‘टीडीएस’ का योगदान है। इस जन-हितकारी काम पर कोई धन्यवाद तक नहीं देता। मेरी जेब काटी और मुझसे थैंक्यू तक न कहा। बड़ा थैंकलेस जमाना है महाराज!
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